सरकार एवं सरकार के कामों की सराहना करते हैं उसकी नीति और नियति पर संदेह भी नहीं करते, नियमित रूप से भारी बहुमत से विजयी हों इसकी कामना भी करते हैं लेकिन समस्यओं का समाधान कैसे हो, विकास की बात भौतिक सुविधाओं के विकास से संभव है, शिक्षा भी क्या व्यापारियों से अनाप-सनाप रूपये खर्च कर प्राप्त करने होंगे ।
विकास तो होगा मगर शिक्षा के वगैर कैसे ? प्रश्न है पर उत्तर नहीं मिलता क्योंकि स्कुल तो है पर मुल-भूत सुविधाओं का अभाव है साथ आबादी के अनुसार स्कुलों की भी कमी है । सरकारी शिक्षा का स्तम्भ इतना कमजोर हो गया है कि उसको ठीक करने के लिए उतनी ही ताकत की जरूरत है जितनी ताकत वर्तमान में भाजपा सरकार को सभी प्रान्तों में सरकार बनाने में लग रही है ।
क्या सरकारी शिक्षा के विकास के लिए कोई अमित साह सरीखे रणनीति कार आएगा ?
क्या शिक्षा में सुधार होगा ?
क्या पारा शिक्षक, शिक्षा मित्र आदि के जगह पर योग्य शिक्षक मिलेंगे ?
शिक्षा के लिए उपर्युक्त माहौल बनेगा ?
मुल-भूत सुविधाओं पर ध्यान दिया जा सकता है ?
क्या सभी बच्चों को स्कुल तक लाया जा सकता है ?
क्या सभी वर्गों के बच्चों को समान शिक्षा का अधिकार नहीं है ?
क्या दलित, शोषित, बंचित आदि के बच्चों को शिक्षित कर राष्ट्र निर्माण की बात नहीं सोची जा सकती ?
क्या मध्यान भोजन देने से शिक्षा और कुपोषण दोनों का समाधान हो गया ?
ऐसे अनेकों प्रश्न है लेकिन चुनाव प्रचार एवं सरकार की नीति में इसके संकेत भी नहीं प्राप्त होते । जब नीति ही नहीं है तो उसके निर्धारण की बात क्या होगी जबकि सभी शिक्षित लोग ये जरूर जानते हैं कि शिक्षा ही समस्याओं का समाधान है चाहे वह कश्मीर में आतंकवाद की समस्या हो, अन्य प्रान्तों में माओबाद, नक्सलवाद, आरक्षण, धार्मिक उन्माद, ऊँच-नीच आदि ।
हम सभी जानते हैं हमारे देश में सरकारी शिक्षा की हालत इतनी खराब है कि प्राइवेट शिक्षा प्रणाली हमारे देश में फल-फुल रहा है और नित्य नए स्कुल या उसकी शाखाओं का विस्तार हो रहा है । फिर भी उन व्यापारियों का धन्यवाद कि पैसे लेकर तो शिक्षा दे रहा है ।
हम अपने मुल अधिकार को प्राप्त करने के लिए सफल व्यापारियों के हाथों कब और कैसे बिक गए पता भी नहीं चला । अब तो ये रोग गहरा होते जा रहा है । समाज में इससे उत्पन्न विषमताओं को भी आगे झेलना होगा हम जो बीज बो रहे हैं उसका फल कड़वा होगा । हम जिस विकास की बात कर रहे हैं वो हमें कभी प्राप्त नहीं होगा ।
हम आंकड़ों की जाल में सरकार की तरह नहीं फंसना चाहते कि जनसंख्या कितनी है कितने लोग शिक्षा से बंचित रह जाते हैं आदि । शिक्षकों के आभाव में जो शिक्षा दिया जा रहा है वह कितना असरदार होगा ।
कदाचार की चर्चा मिडिया में आम है लेकिन उसके कारण की बात कौन सोचता और जब कारण की बात नहीं सोचेंगे तो निवारण कैसे संभव होगा ।
आज सिर्फ सरकार एवं सरकारी तंत्र को इस प्रश्न पर विचार करने के लिए कहना चाहते हैं । क्या लिखें और कितना लिखें रामायण से भी बड़ा लेख संभव है लेकिन दुःख इस बात का है कि राजा सिर्फ सम्राज्य विस्तार की बात सोचेगा या हमारे अधिकारों की रक्षा करते हुए समस्यओं से निजात दिला पाएगा ।
ये लेख नहीं पूर्ण रूप से लेख का शीर्षक भी नहीं है प्राथमिक शिक्षा का बुरा हाल है तो उच्चशिक्षा के विषय में सोचना ही व्यर्थ है ।