Saturday 23 April 2016

TRUTHS OF ASTRO: ग्रहण दोष का गलत प्रचार

TRUTHS OF ASTRO: ग्रहण दोष का गलत प्रचार: नेशनल चैनल के साथ-साथ अन्य चैनलों पर भी जो बताया जाता है कि आपके पत्रिका में ग्रहण दोष लग गया क्या उसे मानना चाहिए ? क्या हमें ज्योतिष अंधे...

ग्रहण दोष का गलत प्रचार

नेशनल चैनल के साथ-साथ अन्य चैनलों पर भी जो बताया जाता है कि आपके पत्रिका में ग्रहण दोष लग गया क्या उसे मानना चाहिए ? क्या हमें ज्योतिष अंधेरे में रखकर अपने लाभ के लिए गलत बताते हैं या ऐसा हमारे शास्त्रों में लिखा है, आमलोगों को सबसे पहले समझना होगा कि आप लोग जो देखते या सुनते हैं क्या वही सच है । आज आपको बताएंगे कि ग्रहण दोष जो बताया जाता है उसका हकीकत क्या है ।
सूर्य या चन्द्रमा के साथ राहु या केतु को देखते ही ज्योतिष बताते हैं कि ग्रहण दोष लग गया और इसका उपाय कराना चाहिए ऐसा नहीं होता है । आप लोगों के जानकारी के लिए कहना चाहेंगे कि राहु व केतु के साथ चन्द्रमा महीने में दो बार युति करते हैं तो क्या युत हो जाने से ही ग्रहण दोष लग जाता है ऐसा नहीं होता है । ठीक उसी तरह सूर्य राहु व केतु के साथ वर्ष में दो माह के लगभग युत रहता है तो ग्रहण दोष लग जाता है उस दो मास सूर्य के साथ स्थित होने पर असंख्य लोगों का जन्म होता है तो क्या सभी को ग्रहण दोष लगता है या महीने में लगभग 4 या 5 दिनों के लिए चन्द्रमा राहु व केतु से युत होता है तो क्या उस दौरान जन्म लेने वाले सभी लोगों को ग्रहण दोष लग जाता है ऐसा नहीं होता । सूर्य ग्रहण दोष और चन्द्र ग्रहण दोष इस तरह से बताने वाले लोग आपके साथ धोखा करते हैं ।

ग्रहण दोष होता है जो शास्त्रों में वर्णित है जो हम श्लोक लिख रहे हैं वो मुहुर्त चिन्तामणी से है -
सूर्येन्दु ग्रहणे काले येषां जन्म भवेद द्विज ।
व्याधि कष्टं च दारिद्रयं तेषां मृत्यूभयं भवेत् ।।
अर्थात सूर्य ग्रहण और चन्द्र ग्रहण काल के समय जिसका जन्म होता है सिर्फ उसको ही ग्रहण दोष लगता है ऐसे जातक के जीवन में व्याधि, कष्ट, दरिद्रता के साथ-साथ मृत्यु भय भी बना रहता है ।
लेकिन सिर्फ राहु व केतु के साथ युत होने मात्र से ग्रहण दोष नहीं लगता अपितु जिस समय चन्द्रग्रहण या सूर्य ग्रहण घटित हो रहा हो उस समय जन्म लेने वाले जातक को ही ग्रहण दोष कहना चाहिए ।
इस दोष से मुक्त होने के लिए साधारण उपाय हम बताते हैं जो शास्त्रानुकुल है इसको कर लेने के बाद मन से यह संशय भी निकाल देना चाहिए कि आगे जीवन में इसका कुप्रभाव होगा ।
तन्नक्षत्रपते रूपं सुवर्णेन प्रकल्पयेत् ।
सूर्यग्रहे सूर्य रूपं सुवर्णेन स्वशक्तितः ।।
चन्द्रग्रहे चन्द्ररूपं रजतेन तथैव च ।
राहुरूपं प्रकुर्वीत सीसकेन विचक्षणः ।।
सूर्य ग्र्रहण में जन्म हो तो - नक्षत्र के देवता, और सूर्य की सोने की प्रतिमा बनाकर,  चन्द्रमा के लिए चांदि की प्रतिमा बनाकर तथा राहु की सीसे की प्रतिमा बनाकर पवित्रता से तीनों को कलश के उपर स्थापित कर पूजन हवन किया जाना चाहिए ।
सूर्य ग्रहण में जन्म लेने पर नक्षत्र स्वामी, जिस नक्षत्र में जातक का जन्म हुआ हो, सूर्य की प्रतिमा तथा राहु की प्रतिमा का पूजन करना चाहिए ।
चन्द्र ग्रहण में जन्म लेने पर नक्षत्र स्वामी, जिस नक्षत्र में जातक का जन्म हुआ हो, चन्द्रमा की प्रतिमा तथा राहु की प्रतिमा का पूजन करना चाहिए ।
अभिषेकं  ततः कुर्यात जातस्य कलशोदकैः ।
आचार्यां पूजयेद् भक्त्या सुशान्तो विजितेन्द्रियः ।
ब्राह्मणान् भोजयित्वा तु यथाशक्ति विसर्जयेत् ।।
कलश के जल से जातक का अभिषेक करना चाहिए तथा यथाशक्ति ब्राह्मण का पूजन दक्षिणा व भोजन कराना चाहिए ।
आज के परिवेश में ज्योतिष को ही दोषों और टोटकों से सर्व प्रथम बचाना होगा -
ऐसे भ्रांतियों से बचना होगा ऐसे दोषों के लिए राहु और केतु को कारण माना गया है, कहा जाता है कि राहु केतु के साथ यदि कोई ग्रह हो तो उस ग्रह को ग्रहण लग जाता है, ग्रहण लग जाने का अर्थ उन ग्रहों के परिणामों की हानि बताते हैं
सूर्य के साथ हो तो सूर्य ग्रहण, चन्द्रमा के साथ हो तो चन्द्र ग्रहण ऐसे संवादों से सावधान रहना होगा ।
धन्यवाद !

विंशोत्तरी दशा फल कथन से पूर्व किन-किन बातों का ध्यान रखें


हम सभी जानते हैं कि 12 भाव होते हैं और उसमें स्थित राशि उस भाव के स्वामी होते हैं, यहां शुभ भाव के स्वामी अशुभ ग्रह भी होते हैं और अशुभ भाव के स्वामी शुभ ग्रह भी होते हैं उदाहरण के लिए मेष लग्न के लिए लग्न के साथ पंचम जो त्रिकोण स्थान होने के कारण शुभ हैं लेकिन मंगल एवं सूर्य नैसर्गिक रूप से अशुभ ग्रह हैं तथा तुला लग्न में तीसरे एवं छठे स्थान के स्वामी गुरू होते हैं गुरू नैसर्गिक रूप से शुभ ग्रह हैं लेकिन तीसरा एवं छठा स्थान अशुभ स्थान कहे गए हैं ।
यहां हम लोगों को तात्कालिक गुण की भी बात करनी होगी । यदि तात्कालिक रूप से अर्थात आपके लग्नानुसार जो शुभ ग्रह भी यदि अशुभ नाथ हो तो उस स्थान के फल उसी शुभ ग्रह को करना होगा । उसी प्रकार शुभ भाव के स्वामी यदि अशुभ ग्रह हों तो उस भाव की शुभता उसी अशुभ ग्रह से प्राप्त होगा ।
यहां समझना होगा कि भाव के स्वामित्व प्राप्त करने पर किसी भी ग्रह के कारकत्वों या गुणस्वरूप में कोई परिवर्तन नहीं होता अपितु अपने गुणस्वरूप के आधार पर ही संबंधित भावों का शुभाशुभ फल प्रदान करते हैं ।
हम सभी जानते हैं कि जीवनपर्यन्त आने वाले शुभाशुभ परिणामों के लिए भाव, भावेश तथा कारक को समझना होता है जो हमें लग्न चार्ट को देखकर तथा वर्गचार्ट से समर्थन प्राप्त कर मालुम होता है । उदाहरण के लिए विवाह होगा कि नहीं वैवाहिक जीवन कैसा होगा इसके लिए सप्तम भाव, सप्तमेश एवं कारक शुक्र के साथ-साथ स़्त्री जातक विशेष के लिए गुरू का अध्ययन कर समझ सकते हैं । लेकिन जब प्रश्न होगा कि विवाह कब होगा अर्थात समय निर्धारण की बात है किस वर्ष किस माह या किस दिन होगा इसके लिए हमेशा ज्योतिष में दशा के उपर निर्भर रहना होता है । यदि हमें लग्न चार्ट देखना आ गया तो हम यह समझ सकते हैं कि विवाह या वैवाहिक जीवन कैसा होगा परन्तु विवाह का समय निर्धारित करने के लिए दशा को समझना जरूरी होगा ।
यहां हम सर्व प्रथम आप लोगों को विंशोत्तरी दशा की चर्चा करेंगे जो प्रचलित होने के साथ-साथ विशेष स्पष्टता भी प्रदान करता है ।

हम जानते हैं कि दशा क्रम क्या होता है पुनः उसको दुहराते हैं -
आ - चम - भौ - रा - जी - श- बु - के- शु याद रखने में आसान होगा । यहां आ का मतलब आदित्य अर्थात सूर्य, चम का अर्थ चन्द्रमा, भौ का अर्थ भौम अर्थात मंगल, रा से राहु जी का मतलब जीव यहां गुरू को जीव भी कहा जाता है, श से शनि, बु से बुध, के से केतु और शु से शुक्र । यह भी जानते हैं कि जन्म के समय चन्द्रमा जिस नक्षत्र में स्थित हो उसी नक्षत्र के स्वामी की शेष दशा प्राप्त होती है ।
यहां गणितीय पद्धति में समझते हैं कि यदि चन्द्रमा रोहिणी नक्षत्र में जन्म के समय 3 अंश 20 कला भोग चुका हो तो चन्द्रमा की शेष 7.5 वर्ष की दशा प्राप्त होगी तथा चन्द्रमा के बाद मंगल और मंगल के बाद राहु की उपर जो क्रम बताया गया है उसी के अनुसार दशा क्रम जीवन पर्यन्त चलता रहेगा । यहां हमने महादशा की बात बतायी ।
विंशोत्तरी दशा पांच खंडों में बताया गया है - महादशा - अन्तदर्शा - प्रत्यन्तर्दशा - सूक्ष्म दशा तथा प्राण दशा । किसी भी ग्रह की महादशा होने पर उसी ग्रह की अंतर दशा प्राप्त होती है और पुनः दशा क्रम से अन्तर्दशा बदलती है । उदाहरण के लिए माना कि शुक्र की महादशा है तो शुक्र की अंतर्दशा प्राप्त होगी शुक्र की अंतर्दशा समाप्त होने पर क्रमशः सूर्य, चन्द्रमा, मंगल, राहु, गुरू, शनि, बुध तथा केतु की आखरी अंतर्दशा शुक्र की महादशा में होगी । अंतर्दशा में प्रत्यन्तर दशा क्रम भी इसी अनुसार होगा साथ ही सुक्ष्म दशा और प्राण दशा का क्रम भी इसी नियम का पालन करता है ।
महादशा वर्ष भी यहां लिखना उचित होगा - सूर्य - 6 वर्ष, चन्द्रमा - 10 वर्ष, मंगल - 7 वर्ष, बुध - 17 वर्ष, गुरू - 16 वर्ष, शुक्र - 20 वर्ष, शनि - 19 वर्ष, राहु - 18 वर्ष तथा केतु की 7 वर्ष की महादशा होती है । महादशा में किन ग्रह की अंतर्दशा कितनी होगी इसको संक्षेप में समझते हैं -
उदाहरण के लिए शुक्र की महादशा में चन्द्रमा के अंतर्दशा वर्ष -
चूंकि 120 वर्ष की महादशा में 10 वर्ष की दशा प्राप्त होती है तो
शुक्र की 20 वर्ष की महादशा में कितने की वर्ष की
यहां संक्षेप में महादशा गुण अंतर्दशा भाग विंशोत्तरी दशा महीने में उत्तर के लिए 12 से गुणा करेंगे शेष रहने पर दिन निकालने के लिए 365 से गुणा करेंगे ।
सभी ग्रहों की अंतरदशा के लिए यही एकिक नियम लागु करेंगे । आसान है आपलोग भयात एवं भभोग की वैदिक प्रक्रिया से बच जाएंगे साथ ही आपके लिए समझना आसान हो जाएगा ।
इसका अभ्यास एक दो बार कर लेंगे तो आसान हो जाएगा समझना । वर्तमान समय में टेक्नोलोजी का सहारा लेकर आप दशा निकालने के झंझट से बचते हैं ।

दशओं को समझते हुए कहना चाहेंगे कि सूर्यादि ग्रह अर्थात राहु व केतु सहित नौ ग्रहों की दशा कही गयी है, जबकि राहु व केतु को राशियों का स्वामित्व नहीं दिया गया है लेकिन विंशोत्तरी दशा में राहु व केतु के दशा बताए गए हैं, पराशर में कहा गया है शनिवत् राहु, कुजवत् केतु इसलिए राहु की दशा 18 वर्ष की जो शनि की दशा से एक वर्ष कम है तथा केतु की दशा 7 वर्ष की जो मंगल की दशा के बराबर है।
जिन ग्रहों के पास अर्थात सूर्य से शनि तक को राशियों का स्वामित्व प्राप्त है इसलिए लग्नानुसार ये सभी ग्रह किसी न किसी भाव के स्वामी होते हैं लेकिन राहु व केतु किसी भाव के स्वामी नहीं कहे गये हैं तो इनके दशाओं के फल को स्पष्ट कैसे किया जाएगा -
- पहला तो नैसर्गिक गुण स्वरूप के आधार पर करना होगा
- दुसरा युति व दृष्टि के आधार पर करना होगा
- राहु केतु की पत्रिका में स्थिति अर्थात किस भाव में स्थित है उसका विचार करके करना होगा
- योगों का ध्यान रखकर करना होगा
- साथ ही लग्नानुसार शनि, बुध और शुक्र का लग्न हो तो इनके गुण शनि के गुण के अनुकुल हैं इसको समझकर करना होगा
मैंने राहु और केतु की चर्चा सबसे पहले इसलिए किया है कि आज वर्तमान समय में हमारे ज्योतिष ग्रहों का दशाफल भावपति होने के आधार पर ही करते हैं, जबकि ऐसा नहीं करना चाहिए । भावपति होने के कारण उस भाव फल तो करेगा ही साथ ही अपने कारकत्वों का फल भी करेगा और शुभाशुभ परिणाम अपने बलाबल के अनुसार करेगा ।
शनि भाग्येश होकर तात्कालिक रूप से शुभ कहलाएगा लेकिन शनि अशुभ ग्रह है इसका भी ध्यान रखना होगा ये नियम सभी ग्रहों के उपर लागु होगा साथ ही कहना चाहेंगे कि सभी ग्रह परिणाम अपने गुणस्वरूप के आधार पर करते हैं इसको भी विशेष महतव देना होगा ।
आपलोगों को समझ में आ गया होगा कि राहु व केतु की चर्चा कर हम सिर्फ इतना बताना चाह रहे थे कि ग्रह तात्कालिक प्रभाव के कारण अपने नैसर्गिक गुणों को नहीं भूलते । दशा का पाठ लिखते समय हम कहना चाहेंगे कि आप लोग दुविधा में पड़ेंगे और असमंजस की स्थिति भी होगी कि हम क्या पढ़ रहे हैं इसका समाधान भी यहीं मिलेगा यदि आप निरंतर पढ़ते रहेंगे तो शायद आपका दुविधा समाप्त हो जाए ।

एक बात और सूर्यादि ग्रहों के दशा फल लिखने से पूर्व कहना चाहेंगे कि हम सभी जानते हैं कि ज्योतिषियों के प्रमुख अस्त्र 27 नक्षत्र, 9 गह, 12 राशियां ही हैं इन्हीं को समझने में 12 वर्ष का समय लग जाता है शास्त्रों में कहा गया है कि एक वेदांगों को पढ़ने में 12  वर्ष का समय लगता है और 6 वेदागों का यदि पूर्ण ज्ञान प्राप्त करना हो तो आपका जीवन ही निकल जाएगा इसलिए हम कहेंगे पाठ पढ़ने के क्रम में स्वध्याय को न भूलें और अपने समाथ्र्य से भी कुछ न कुछ ज्योतिष संबंधी टेस्ट बुक पढ़ते रहें ।
यहां जो बताना है कि कालपूरूष की बात हम करते हैं और उदाहरण में समझिए कि कहते हैं कि कालपुरूष की पत्रिका के अनुसार मीन राशि द्वादश स्थान में स्थित होती है जहाँ शुक्र को उच्च का कहते हैं और इसलिए शुक्र को द्वादश जाने का दोष नहीं लगता अर्थात हमें यह समझना होगा कि कालपुरूष की पत्रिका को भी समझना और फलित के साथ-साथ दशाफल में भी इसका ध्यान रखना जरूरी होता है ।
कालपुरूष की पत्रिका कहीं शिव तो कहीं विष्णु का बताया जाता है आप अपनी समझ से समझें हम तो इतना कहेंगे की पहली राशि अर्थात मेष राशि के अनुसार जो भावों के स्वामित्व का निर्धारण होता है उसका भी ध्यान रखना बहुत है । यहां किसी भी पत्रिका को समझने के लिए कालपुरूष की पत्रिका और उसके अनुसार भावपति का भी ध्यान रखना उचित होता है ।
एक और बात को स्पष्ट करना चाहेंगे कि हम पराशर ज्योतिष को पढ़ते समय यह भी पढे़ हैं कि देश काला और परिस्थिति का भी ध्यान रखना चाहिए यदि आप इन बातों का ध्यान नहीं रखेंगे तो हमेशा फलित करने में भूल होगी इसलिए इस बात का भी ध्यान रखना होगा ।
इसके लिए सबसे पहले ये समझना जरूरी है जिस किसी का भी पत्रिका देख रहे हैं उसकी उम्र क्या है और वर्तमान समय में किस ग्रह की दशा है तथा पीछे किस ग्रह की दशा भोग चुका है साथ ही आने वाली दशा किस ग्रह की है और वह ग्रह कौन सा है इसके बाद ही ध्यान देना है कि संबंधित ग्रह किस भाव का स्वामित्व रखता है ।
एक और बात जिसका ध्यान रखना भी अनिवार्य है वो है जन्मकालीन दशा-अन्र्तदशा जिस तरह लग्न एवं राशि को आधार मानकर पत्रिका की विवेचना करते हैं उसी तरह जन्म के समय मिलने वाली दशा का भी ध्यान रखना चाहिए ।
अभी तक तो हम दशाफल से पूर्व ध्यान रखने योग्य बातों को बता रहे हैं इसका विशेष ध्यान रखना होगा यदि इसको समझे वगैर भावेश और ग्रह के गुण स्वरूप के अनुसार यदि फल कहेंगे तो हमेशा भूल होगी ।
हम और आप अपने हित तथा ज्योतिष के हित के लिए इस विषय को समझ रहे हैं बांकि तो उपाय करने वाले ही अच्छे ज्योतिष हैं जिनके लिए कहना आसान होता है कि हमने आपको यह उपाय बताया था आपने नहीं किया इसलिए ये परिणाम आये ।
कालपुरूष की पत्रिका बना कर उसी भाव में उसके स्वामी को लिखेंगे आप लोगों का परेशानी नहीं होनी चाहिए ।